कभी-कभी कुछ शब्द सीधे दिल के उस कोने में जाकर बैठ जाते हैं, जहाँ नज़्में बसती हैं, जहाँ अधूरी मुलाकातें साँस लेती हैं और जहाँ आँखें किसी ख़ामोश मुस्कान की तलाश में भटकती रहती हैं।
एक ऐसी कविता जो प्रतीक्षा, मोहब्बत और अधूरेपन के बीच कहीं ठहरी हुई लगती है।
कविता कुछ यूँ है:
हर बार उलझ जाती हैं ,
आँखें मेरी।
पता नही, क्यों?
वो मुस्कुराती है
पलके झुकाती है
शरमाती है।।
अपना पता
बताये बगैर ही
चली जाती है।।
और फिर,
हर रोज की तरह
उस वीरान स्टेशन के,
सुनसान प्लेटफार्म पर
छोटे से पेड़ के नीचे
उसको तलाशती
नजर आती हैं
आँखें मेरी।
पता नही, क्यों?
हर बार उलझ जाती हैं,
आँखें मेरी।।
यह कविता पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे हम किसी पुरानी फ़िल्म के सीन में प्रवेश कर गए हों — वो वीरान स्टेशन, वो छोटा सा पेड़, और हर दिन वहाँ जाकर किसी की एक झलक को तरसती आँखें।
कविता में प्रतीक्षा का चित्रण जितना सीधा है, उतना ही गहरा भी। “अपना पता बताये बगैर ही चली जाती है” — यह पंक्ति उस अनकही मोहब्बत को दर्शाती है, जो हर बार छूकर भी फिसल जाती है।
पार्श्व में एक शाश्वत सवाल चलता रहता है — “पता नहीं क्यों?”
शायद इसलिए कि प्रेम का कोई तर्क नहीं होता। शायद इसलिए कि कुछ मुलाकातें बस लम्हों की होती हैं, उम्र की नहीं। और शायद इसलिए कि कुछ लोग हमारे जीवन में सिर्फ उलझने के लिए आते हैं — सुलझने के लिए नहीं।
यह कविता न सिर्फ़ प्रेम की बात करती है, बल्कि “इन्तज़ार की ख़ामोशी” को भी शब्द देती है। यह उन सभी लोगों की आवाज़ है जो रोज़ किसी एक मुस्कान, एक नज़र, या एक मौजूदगी के इंतज़ार में वक्त की भीड़ में अकेले खड़े होते हैं।
अंत में…
“हर बार उलझ जाती हैं, आँखें मेरी” — ये पंक्ति सिर्फ़ एक भाव नहीं, बल्कि एक यात्रा है। एक दिल से निकलती पुकार, एक दोहराई जाने वाली कहानी, जो शायद कभी पूरी न हो, पर फिर भी बार-बार जी जाती है।
क्या आपके जीवन में भी कोई ऐसा स्टेशन है, कोई मुस्कान — जो बस याद बनकर रह गई?